आओ मैं आपको एक किस्सा सुनाता हूं, एक चोटी सी कहानी। हमारा पात्र -एक जवान, हसमुख, दिलखुश इंसान- अपने परिवार, दोस्तों, परिजनों और यारों से बहुत दूर, एक विदेशी शहर में रहता और काम करता था। मौका लगते अपने शहर साल में दो चार बार चक्कर लग ही जाता था, इसी प्रकार दोस्तों और परिवार से मेल बना रहता। यह नया शहर भाता तो था, पर इस शहर में वो अजनबी था, साहब कहते हैं ना - की वो बात न थी, और ना था वो याराना - तो यही बात उसे जाने अनजाने खलती। इसी कमी के कारण साल में कई बार घर जाना हो ही जाता था। ज़िन्दगी गुलज़ार थी, कट रही थी। इस साल का भी इरादा कुछ यही था, की घर जाय जाये, अपने बचपन की यादोँ में फिर सिमटने, घुलने; पर प्रकृति को यह मंजूर न था, यह साल कुछ अलग था, एक महामारी से पूरा विश्व थम सा गया, सब ठप, अपने आप में अनोखी, अभूतपूर्व घटना। सब यातायात बंद कर दिया गया, कोई तरीका न रह गया घर जाने का। सब घर में बंद थे और था हमारा पात्र। घर से काम करने की व्यवस्था थी, तो उसने इन महीने काम किया, खूब काम किया, न दिन मायने रखते थे न त्योहार, सिर्फ काम ही था जिसमें वह व्यतीत रहता। अब समय भी काफी था क्यूंकि दफ्तर आना जाना नही पड़ता था, इस खाली समय में घर न जाना ही उसे खलता। खूब तरीके इस्तेमाल किये, की घर पास लगे - टेलीफोन, मोबाइल, facetime, ईमेल, पर कुछ न भाया, घर की हवा तो घर की ही होती है, बिजली के तारों से ना पहुंचने वाली थी वो उस तक। इससे वो विचलित सा रहेने लगा, परेशान की यह कब खत्म होगा, कब घर जाया जाएगा; उसे घर की चाय, सड़क, दोस्त सबकी याद ने हैरान परेशान सा कर दिया, ना काम में ध्यान लगता था ना अपने इस शहर के दोस्तों की महफिलों में कोई आनंद आता, सब इतरबितर सा लगता था। इस नये शहर के एक दोस्त से यह उदासी देखी न गयी। वो कुछ कलाकार सा मालूम होता था, अपने विचारो, अपनी दुनिया में मग्न, लंबा कुर्ता ओर लंबे घुंगराले बाल; इस दोस्त ने समझाया 'यह सब समय का खेल है मेरे दोस्त, कुछ समय में ठीक हो जाना है, बिल्कुल हिंदी के विराम चिह्नो की तरह, यह वक्त तो एक छोटा सा अर्धविराम (;) है, इसे तुम अल्पविराम ना समझो (।)'. पहले तो उसने इस बात को न समझते हुए सिर हिला गया, और अपनी चिंताओं में फिर धंस सा गया, सोचते हुए की यह सुघड़ क्या जाने दुनियादारी। कुछ दिन बीते, पर महामारी ने जाने का नाम न लिया। धीरे धीरे, वो इस जिंदगी के धीमेपन में अपने वर्तमान को समझने लगा, नए दोस्त बनाये इस नए शहर में, और ज़िन्दगी को दिन प्रति दिन जीने लगा, बिन भविष्य की राह देखे; और साथ ही साथ महामारी ने भी बाहर का रास्ता पकड़ा, और घर जाने की व्यवस्थायें भी खुलने लगीं। और फिर उसे उस कलाकार की कही बात समझ पड़ी, क्या करें सहाब, हमारे पात्र की हिंदी काफी कमज़ोर हैं, वो तजुर्बे के मोहताज हैं और उसी से सीखते हैं।
कमज़ोर हिंदी और महामारी का दौर
Updated: Dec 3, 2020
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